10-12-79  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

पुण्य आत्माओं के लक्षण

आज बाप-दादा अपने सर्वश्रेष्ठ महान पुण्य-आत्माओं को देख रहे हैं। 1. पुण्यात्मा अर्थात् हर संकल्प और हर सेकेण्ड अपने और अन्य आत्माओं के प्रति पुण्य का खाता जमा करने और कराने वाली। 2. पुण्य आत्मा अर्थात् सदा कोई-न-कोई खज़ाने का महादान कर पुण्य कमाने वाली। 3. पुण्य आत्मा अर्थात् सदा उनके नयनों में बाप-दादा की मूर्त्त और सूरत में बाप-दादा की सीरत, स्मृति में बाप-समान समर्थ, मुख में सदा ज्ञान रत्न अर्थात् सदा अमूल्य बोल, हर कर्म में बाप-समान चरित्र, सदा बाप-समान विश्वकल् याणकारी वृत्ति, हर सेकेण्ड हर संकल्प के कल्याणकारी, रहमदिल किरणों द्वारा चारों ओर के दु:ख अशान्ति के अन्धकार को दूर करने वाले। 4. पुण्य आत्मा अपनी पुण्य की पूंजी से अनेक गरीबों को साहूकार बनाने वाले। ज्ञान-स्वरूप पुण्य आत्मा के एक पुण्य में भी बहुत ताकत है क्योंकि डायरेक्ट परमात्मा-पावर के आधार पर पुण्य आत्मा हैं।

जैसे द्वापर के इनडायरेक्ट दान-पुण्य करने वाले सकामी अल्पकाल के राजायें देखे व सुने होंगे, उन राजाओं में भी राज्य सत्ता की फुल पावर थी। जो आर्डर करें, कोई उसको बदल नहीं सकता। चाहे किसी को क्या भी बना दें। किसी को मालामाल बना दें, किसी को फाँसी पर चढ़ा दें, दोनों अथॉरिटी थी। यह है इनडायरेक्ट दान-पुण्य की सत्ता जो द्वापर के आदि में यथार्थ रूप में यूज़ करते थे। पीछे धीरे-धीरे वही राज्य सत्ता अयथार्थ रूप में हो गई। इस कारण आखिर अन्त में समाप्त हो गई। लेकिन जैसे इनडायरेक्ट राज्य सत्ता में भी इतनी शक्ति थी जो अपनी प्रजा को, परिवार को अल्पकाल के लिए सुखी वा शान्त बना देते थे। ऐसे ही आप पुण्य आत्माओं व महादानियों को भी डायरेक्ट बाप द्वारा प्रकृति-जीत, मायाजीत की विशेष सत्ता मिली हुई है तो आप ऑलमाइटी सत्ता वाले हो। अपनी ऑलमाइटी सत्ता के आधार पर अर्थात् पुण्य की पूंजी के आधार पर, शुद्ध संकल्प के आधार से, किसी भी आत्मा के प्रति जो चाहो, वह उसको बना सकते हो। आपके एक संकल्प में इतनी शक्ति है जो बाप से सम्बन्ध जोड़ मालामाला बना सकते हो। उनका हुक्म और आपका संकल्प। वह अपने हुक्म के आधार से जो च्हें वह कर सकते हैं - ऐसे आप एक संकल्प के आधार से आत्माओं को जितना चाहे उतना ऊंचा उठा सकते हो क्योंकि डायरेक्ट परमात्म- अधिकार प्राप्त हुआ है - ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें हो? लेकिन अब प्रैक्टिल में क्यों नहीं होता? अधिकार है, आलमाइटी सत्ता भी है फिर उसको यूज़ क्यों नहीं कर पाते? कारण क्या है? यह श्रेष्ठ सेवा अब तक शुरू क्यों नहीं हुई है?

संकल्प शक्ति का मिस यूज़ नहीं करो यूज़ करो

कोई भी सत्ता को सारी हिस्ट्री में अगर यूज़ नहीं किया है उसका विशेष कारण है अपनी सत्ता को मिसयूज़ करना। राजाओं ने राजाई गँवाई, नेताओं ने अपनी कुर्सी गँवाई, डिक्टेटर्स अपनी सत्ता खो बैठे - कारण? अपने निजी कार्य को छोड़ ऐशो-आराम में व्यस्त हो जाते हैं। कोई-न-कोई बात की तरफ स्वयं अधीन होते हैं, इसलिए अधिकार छूट जाता है। वशीभूत होते हैं, इसलिए अपना अधिकार मिसयूज़ कर लेते। ऐसे बाप द्वारा आप पुण्य आत्माओं को जो हर सेकेण्ड और हर संकल्प में सत्ता मिली हुई है, अथॉरिटी मिली हुई है, सर्व अधिकार मिले हुए हैं उसको यथार्थ रीति से सत्ता की वैल्यू को जानते हुए उसी प्रमाण यूज़ नहीं करते। छोटी-छोटी बातों में अपने अलबेलेपन के ऐश-आराम में या व्यर्थ सोचने और बोलने में मिस यूज़ करने से जमा हुई पुण्य की पूंजी व प्राप्त हुई ईश्वरीय सत्ता को जैसे यूज़ करना चाहिए वैसे नहीं कर पाते। नहीं तो आपका एक संकल्प ही बहुत शक्तिशाली है। श्रेष्ठ ब्राह्मणों का संकल्प आत्मा के तकदीर की लकीर खींचने वाला साधन है। आपका एक संकल्प एक स्विच है जिसको ऑन कर सेकेण्ड में अन्धकार मिटा सकते हो।

5. पुण्य आत्माओं का संकल्प एक रूहानी चुम्बक है जो आत्मा को रूहानियत की तरफ आकर्षित करने वाला है।

6. पुण्य आत्मा का संकल्प लाइट हाउस है जो भटके हुए को सही मंज़िल दिखाने वाला है।

7. पुण्य आत्मा का संकल्प अति शीतल स्वरूप है, जो विकारों की आग में जली हुई आत्मा को शीतला बनाने वाला है।

8. पुण्य आत्मा का संकल्प ऐसा श्रेष्ठ शस्त्र है जो अनेक बन्धनों की परतन्त्र आत्मा को स्वतन्त्र बनाने वाला है।

9. पुण्य आत्मा के संकल्प में ऐसी विशेष शक्ति है जैसे जन्त्र-मन्त्र द्वारा असम्भव बात को सम्भव कर लेते हैं वैसे संकल्प की शक्ति द्वारा असम्भव को भी सम्भव कर सकते हो। वशीकरण महामन्त्र द्वारा वशीभूत आत्मा को फायरफ्लाई मुआिफक उड़ा सकते हो।

10. जैसे आजकल के यन्त्रों द्वारा रेगिस्तान को भी हरा-भरा कर देते हैं, पहाड़ियों पर भी फूल उगा देते हैं। क्या आप पुण्य आत्माओं के श्रेष्ठ संकल्प द्वारा ना-उम्मीदवार से उम्मीदवार नहीं बन सकता? ऐसे हर सेकेण्ड के पुण्य की पुंजी जमा करो। हर सेकेण्ड हर संकल्प की वैल्यू को जान, संकल्प और सेकेन्ड को यूज़ करो। जो कार्य आज के अनेक पदमपति नहीं कर सकते वह आपका एक संकल्प आत्मा को पदमापदमपति बना सकता है। तो आपके संकल्प की शक्ति कितनी श्रेष्ठ है। चाहे जमा करो औ कराओ, चाहे व्यर्थ गँवाओ, यह आपके ऊपर है। गँवाने वाले को पश्चाताप करना पड़ेगा। जमा करने वाले सर्व प्राप्तियों के झूले में झूलेंगे। कभी सुख के झूले में, कभी शान्ति के झूले में, कभी आनन्द के झूले में। और गँवाने वाले झूले में झूलने वालों को देख अपनी झोली को देखते रहेंगे। आप सब तो झूलने वाले हो ना। राजस्थान और यू.पी.वाले आये हैं।

राजस्थान वाले तो राज्य सत्ता अर्थात् अधिकार की सत्ता, ईश्वरीय सत्ता द्वारा सदा अपने राजस्थान को रेगिस्तान से सब्ज़ बनाने में, रेगिस्तान को गुलिस्तान बनाने में, जंगल को फूलों का बगीचा बनाने में होशियार हैं। राजस्थान में मुख्य स्थान मुख्य केन्द्र है। तो जहाँ मुख्य केन्द्र है वह सब में मुख्य हैं ना। राजस्थान को तो नाज़ होना चाहिए, नशा होना चाहिए। राजस्थान से नये-नये सेवा के प्लैन्स निकलने चाहिए। राजस्थान को कोई नई इन्वेन्शन करनी चाहिए। अभी की नहीं है। राजस्थान की धरती का परिवर्तन करना पड़ेगा। उसके लिए बार-बार मेहनत का जल डालना पड़ेगा। लगातार का खाद डालना पड़ेगा। अभी हल्का खाद डाला है। अच्छा, दूसरे दिन फिर यू.पी. की महानता सुनावेंगे। फॉरेन तो अब भी फौरन करने वाले हैं। आजकल फॉरेन फौरन हो गया है। सोचा और किया। यू.पी. की महानता की माला भी वर्णन करेंगे। अभी तैयार करना फिर दूसरे दिन माला पहनाएंगे।

ऐसे श्रेष्ठ संकल्प की विधि द्वारा आत्माओं की सद्गति करने वाले ईश्वरीय सत्ता द्वारा आत्माओं को हर विपदा से छुड़ाने वाले, सदा पुण्य की पूंजी जमा करने और कराने वाले, सदा विश्व-कल्याण के दृढ़ संकल्प धारण करने वाले, ऐसे सर्व श्रेष्ठ पुण्य आत्माओं को बाप-दादा का याद, प्यार और नमस्ते।

टीचर्स के साथ - टीचर्स तो सदा चढ़ती कला का अनुभव करती चल रही हो ना? टीचर्स की विशेषता - अनुभवी मूर्त बनना। टीचर अर्थात् सुनाने वाली नहीं लेकिन टीचर अर्थात् कहने के साथ अनुभव कराने वाली। तो सुनाना और स्वरूप में अनुभव कराना - यह है टीचर्स की विशेषता। सुनाने वाले या भाषण करने वाले, क्लासेज़ कराने वाले तो द्वापर से बहुत बड़े-बड़े नामीग्रामी बने लेकिन यहाँ ज्ञान-मार्ग में नामीग्रामी कौन बनता है? भाषण वाले? जो सुनाने के साथ-साथ अनुभव करायें। टीचर्स को विशेष अटेन्शन में यही सेवा हो कि मुझे, सदा जहाँ भी हैं वहाँ का और उसके साथ बेहद का वायुमण्डल वायब्रेशन्स सदा शुद्ध बनाना है। जैसे कोई हद की खुशबू वातावरण को कितना बदल लेती है, ऐसे टीचर्स के गुणों की धारणा की खुशबू, शक्ति की खुशबू वायुमण्डल व वायब्रेशन्स को सदा शक्तिशाली बनाये। टीचर कभी यह नहीं कह सकती कि वायुमण्डल ऐसा है, इनके वायब्रेशन्स के कारण मेरा पुरूषार्थ भी ऐसा हो गया। टीचर्स अर्थात् परिवर्तन करने वाली, न कि स्वयं परिवर्तन होने वाली। जो परिवर्तन करने वाला होता है वह कभी किसी के प्रभाव में स्वयं परिवर्तित नहीं होता है। तो टीचर्स की विशेषता वायुमण्डल को पावरफुल बनाना, कमज़ोरों को स्वयं शक्ति- शाली बन शक्ति का सहयोग देने वाली। दिलशिकस्त का उमंग हुल्लास बढ़ाने वाली। तो ऐसी टीचर्स हो ना? यह है टीचर्स का कर्त्तव्य या ड्यूटी। ऐसे स्वयं सम्पन्न हो जो औरों को भी सम्पन्न बना सकें। अगर कोई भी शक्ति की कमी होगी तो दूसरे भी उसी बात में कमज़ोर होंगे क्योंकि निमित्त हैं ना। टीचर्स को सदा अलर्ट और एवररेडी होना चाहिए। स्थूल वा सूक्ष्म आलस्य का नाम-मात्र भी न हो। पुरूषार्थ का भी आलस्य होता है और स्थूल कर्म में भी आलस्य होता है। पुरूषार्थ में दिलशिकस्त होते हैं तो आलस्य आ जाता हैं। क्या करें, इतना ही हो सकता है, ज्यादा नहीं हो सकता। हिम्मत नहीं है, चल तो रहे हैं, कर तो रहे हैं। पुरूषार्थ की थकावट भी आलस्य की निशानी हैं। आलस्य वाले जल्दी थकते हैं, उमंग वाले अथक होते हैं। तो टीचर्स अर्थात् न स्वयं पुरूषार्थ में थकने वाली न औरों को पुरूषार्थ में थकने दें। तो ऑलराउन्डर भी हों और अलर्ट भी हों।

हर कार्य में सम्पन्न। कभी-कभी टीचर्स समझती हैं कि क्लास कराना, इन्टरनल कार्य करना हमारा काम है और स्थूल सेवा, वह दूसरों का काम है, लेकिन नहीं। स्थूल कार्य भी इन्टरनल कार्य की सबजेक्ट है। यह भी पढ़ाई की सबजेक्ट है, तो इसको हल्की बात नहीं समझो। अगर कर्मणा में मार्क्स कम होंगी तो भी पास विद ऑनर नहीं बन सकेंगी। बैलेन्स होना चाहिए। इसको सेवा न समझना यह भी राँग हैं। इन्टरनल सेवा का यह भी एक भाग है। अगर प्यार से योगयुक्त होकर भोजन न बनाओ तो अन्न का मन पर प्रभाव कैसे होगा। स्थूल कार्य नहीं करेंगे तो कर्मणा की मार्क्स कैसे जमा होगी। तो टीचर्स अर्थात् स्पीकर नहीं, क्लास कराने वाली, कोर्स कराने वाली नहीं, जैसा समय जैसी सबजेक्ट उसमें ऐसे ही रूचि पूर्वक सेवा में सफलता प्राप्त करें, इसको कहा जाता है - ऑलराउन्डर। ऐसे हो ना कि इन्टरनल वाली और हैं, एक्सटर्नल वालीं और हैं। दोनों का ही आपस में सम्बन्ध है।

टीचर्स को त्याग और तपस्या तो सदा ही याद हैं ना? किसी भी व्यक्ति या वैभव के आकर्षण में न आयें। नहीं तो यह भी एक बन्धन हो जाता है कर्मातीत बनने में। तो टीचर्स अपने आपके पुरूषार्थ में सन्तुष्ट है? चढ़ती कला की महसूसता होती है? सबसे सन्तुष्ट हो सभी? अपने पुरूषार्थ से, सेवा से फिर साथियों में, सबसे सन्तुष्ट? सबके सर्टिफिकेट होने चाहिए ना? तो सभी सर्टिफिकेट हैं। क्या समझती हो? अगर आप सच्चाई से और सफाई से सन्तुष्ट  हैं तो बाप भी सन्तुष्ट है। एक होता है वैसे ही कहना कि सन्तुष्ट हैं, एक होता है सच्चाई-सफाई से कहना कि सन्तुष्ट हैं। सदा सन्तुष्ट! यहाँ आई हो, कोई भी कमी हो तो अपने प्रति या सेवा के प्रति, तो जो निमित्त बने हुए हैं उनसे लेन-देन करना। आगे के लिए चढ़ती कला करके ही जाना। कमी को भरने और स्वयं को हल्का करने के लिए ही तो आते हो। कोई भी छोटी-सी बात भी हो जो पुरूषार्थ की स्पीड में रूकावट डालने के निमित्त हो तो उसको खत्म करके जाना।

राजस्थान ज़ोन - पाटियों से मुलाकात :- बाप-दादा सभी राज़स्थान निवासी बच्चों को किस नज़र से देखते हैं? राजस्थान के सभी राजे बच्चे हैं अर्थात् स्व-राज्यधारी हैं। अब स्वराज्यधारी और भविष्य में विश्व-राज्यधारी। जितना स्वराज्य उतना ही विश्व पर राज्य। जितने यहाँ अधिकारी बनते, उतना वहाँ भी बनते हैं। तो सभी स्वराज्यधारी हो? स्व पर राज्य अधिकारी बनने वाले अन्य आत्माओं को भी स्वराज्य के अधिकारी बना सकते हैं। तो पूरा अधिकार प्राप्त किया है कि कर रहे हो? अपने पुरूषार्थ से अपनी प्रारब्ध को समझ सकते हो। बहुत समय का पुरूषार्थ तो बहुत समय की प्रारब्ध। बाप वर्सा तो सबको एक जैसा देते हैं लेकिन वर्से को सम्भालने वाले अपनी यथाशक्ति अनुसार ही सम्भाल सकते हैं। लौकिक में भी बाप जायदादा एक जैसी बाँटते हैं लेकिन उसे कोई अल्पकाल चलाते, कोई बहुतकाल। कोई एक वंश तक कोई अनेक वंशों तक। तो बाप यहाँ भी वर्सा तो एक-जैसा देते लेकिन सम्भालने वाले नम्बरवार र्हं। तो राजस्थान वाले कौन-सा नम्बर हैं। नम्बर वन वाले हो? कैसे करें? क्या करें? ऐसे कहने वाले तो नहीं हो न? कैसे मन को लगायें, कैसे ऑखों को एकाग्र करें, ऐसी कम्पलेन्ट करने वाले तो नहीं हो न? अधिकारी कभी ‘कैसे’ नहीं कहेंगे? अधिकारी तो ऑर्डर से चलायेंगे। अधिकारी को ऑडर से ही चलाने का अधिकार है। ऑखे धोख् देती है ऐसे नहीं कहेंगे, आर्डर देंगे ऐसे देखना है। यही अन्तर है अधिकारी और अधिन में। क्या करें, हो गया, यह बोल अधिकारी कभी नहीं बोलेंगे। तो ऐसे अधिकारी हो कि कभी-कभी वाले हो। अगर कभी-कभी के अधिकारी होंगे तो कभी-कभी झूले में झूलेंगे। सदा बाप के साथ अतिइन्द्रिय सुख के झूले में कभी-कभी वाले कैसे झूलेंगे? सदा का वरदान है कभी-कभी का, ज्ञान अर्थात् सदा। भक्ति में कभी प्राप्ति कभी पुकार। लेकिन ज्ञान में सदा प्राप्ति। यही तो अन्तर है। तो आप सब कौन हो - ज्ञानी या भक्त। ज्ञानी को अविनाशी बाप का सदाकाल का वर्सा है। अभी तक कमी क्यों है उसका कारण क्या है? (अलबेलापन) समझदार तो बहुत हो, समझते भी हो फिर क्यों नहीं करते? अलबेलेपन को समझते भी आने क्यों देते?

अलबेलापन न आए उसकी विधि क्या है? उसकी विधि है? सदा स्वचिन्तन करो और शुभ चिन्तक बनो। स्वचिन्तन की तरफ अटेन्शन कम है, अमृतबेले से लेकर स्वचिन्तन शुरू करो और बार-बार स्वचिन्तन के साथ-साथ स्व की चैकिंग करो। चैंकिग नहीं करते, चिन्तन नहीं करते, इसको एक दृढ़ संकल्प की रीति से अपने जीवन का निजी कार्य नहीं बनाते, इसलिए अलबेलापन आता है। जैसे भोजन खाना एक निजी कार्य है न, वह कभी भूलते हो क्या? आराम करना, यह निजी कार्य है ना, अगर एक दिन भी 2-4 घन्टे आराम कम करेंगे तो चिन्तन चलेगा नींद कम की। जैसे उसको इतना आवश्यक समझते हो वैसे स्वचिन्तन और स्व की चैकिंग, इसको आवश्यक कार्य न समझने के कारण अलबेलापन आता है। पहले वह आवश्यक समझते हो यह नहीं। अमृतबेले रोज़ इस आवश्यक कार्य को री-रीफ्रेश करो तभी सारा दिन उसका बल मिलेगा। अगर फिर भी अलबेलापन आता तो 3. अपने-आपको सज़ा दो। जो सबसे प्यारी चीज़ व कत्र्तव्य लगता हो उससे अपने को किनारा करो। पश्चाताप करना चाहिए। अभी पश्चाताप कर लेंगे तो पीछे नहीं करना पड़ेगा। 4. रोज़ अमृतबेले अपनी महिमा, बाप की महिमा, अपना कर्त्तव्य, बाप का कर्त्तव्य रिवाइज़ करो। एक निजी नियम बनाओ। अलबेलापन तब आता है जब सिर्फ डायरेक्शन समझा जाता, नियम नहीं बनाते। जैसे दफतर में जाना जीवन का नियम है तो जाते हो ना? ऐसे नीज-नीज को नियम दो। अमृतबेले उठकर अपने नियम को दोहराओ। मेरे जीवन की क्या विशेषतायें हैं। ब्राह्मण जीवन के क्या नियम हैं। और हर घण्टे चैंकिग करो कि कहाँ तक नियम को अपनाया है। हर समय बार-बार चेकिंग करो, सिर्फ रात को नहीं।

इस वरदान भूमि से दृढ़ संकल्प की विशेष सौगात ले जाना। जो भी करो पहले दृढ़ संकल्प - ‘करना ही है’ यह सौगात ले जाओ तो सदा याद रहेगा। बार-बार अटेन्शन के चौकीदार रखना तो वह पहरा देते रहेंगे। अलबेलेपन की निवृत्ति का साधन है। 5. बार-बार अटेन्शन। सहज मार्ग समझते हो, इसलिए अलबेले हो जाते हो। 6. कोई कड़ा नियम बनाओ। जैसे भक्ति में कड़ा व्रत धारण करते हैं, ऐसे कड़ा नियम बनायेंगे तो अलबेलापन समाप्त हो जायेगा। जैसे साकार बाप को अथक देखा ना, ऐसे ही फालो फादर। पहले स्व के ऊपर मेहनत फिर सेवा में मेहनत। तभी धरती को चेन्ज कर सकेंगे। अभी सिर्फ ‘‘कर लेंगे - हो जायेगा’’ इस आराम के संकल्पों के डंलप को छोड़ो। ‘‘करना ही है’’ यह मस्तक में सदा सलोगन याद रहे तो फिर परिवर्तन हो जायेगा।

आपस में पुरूषार्थ के स्व उन्नति के प्लैन्स का ग्रुप बनाओ। उन्नति की बातों पर रूह-रूहान करो। लेन-देन करते-करते बार-बार यह रिपीट करते-करते रिवाइज़ करतेकरते रियलाइजेशन भी हो जायेगी। रोज़ किस विषय पर और क्या-क्या डीप रूह-रूहान की, इसका हर सप्ताह समाचार का पत्र आना चाहिए। क्या-क्या रूह-रूहान की। क्या चार्ट रहा। यह भी उन्नति का झन्डा है। धर्मराज के पास बाप का बच्चा डन्डा खाये - यह शोभा देगा? इसलिए अभी उन्नति का झन्डा ठीक है।

अभी तो चारों ओर फैलाव करो - राजस्थान के हिसाब से मुख्यालय के हिसाब से झन्डा तो ऊंचा है ना। अब ऐसा नम्बरवन बनो जो आपको सब फालो करें। स्व- उन्नति की एक इन्वेन्शन करके दिखाओ तो सब फालों करेंगे।

आगरा जोन - देह के बन्धन से न्यारा रहने वाला ही बाप का प्यारा है :- सभी सदा प्रवृत्ति में रहते भी न्यारे और बाप के प्यारे, ऐसी स्थिति में स्थित हो चलते हो? जितने न्यारे होंगे उतने ही बाप के प्यारे होंगे। तो हमेशा न्यारे रहने का विशेष अटेन्शन है? सदा देह से न्यारे आत्मिक स्वरूप में स्थित रहना। जो देह से न्यारा रहता है वह प्रवृत्ति के बन्धन से भी न्यारा रहता है। निमित्त मात्र डायरेक्शन प्रमाण प्रवृत्ति में रह रहे हो, सम्भाल रहे हो लेकिन अभी-अभी आर्डर हो कि चले आओ तो चले आयेंगे या बन्धन आयेगा। सभी स्वतन्त्र हो? बिगुल बजे और भाग आयें। ऐसे नष्टोमोहा हो? ज़रा भी 5% भी अगर मोह की रग होगी तो 5 मिनट देरी लगायेंगे और खत्म हो जायेगा। क्योंकि सोचेंगे, निकलें या न निकलें। तो सोच में ही समय निकल जायेगा। इसलिए सदा अपने को चेक करो कि किसी भी प्रकार का देह का, सम्बन्ध का, वैभवों का बन्धन तो नहीं हैं। जहाँ बन्धन होगा वहाँ आकर्षण होगी। इसलिए बिल्कुल स्वतन्त्र। इसको ही कहा जाता है - बाप-समान कर्मातीत स्थिति। सभी ऐसे हो ना?